राजकुमार का अदम्य साहस-4

वजीर के लड़के ने
दरवाजे पर जाकर उसे
खटखटाया, पर कोई
नहीं बोला। उसने
मन-ही-मन कहा,
“यह एक नई मुसीबत
सिर पर आ गई। पर
अब
हो क्या सकता था!”
उसने बार-बार
दरवाजा खटखटाया,
राजकुमार
को पुकारा, लेकिन
कोई नहीं बोला।
हारकर वह
अपनी जगह पर बैठ
गया और राजकुमार के
आने
की प्रतीक्षा करने
लगी। घंटों बीत गये,
न दरवाजा खुला, न
राजकुमार आया। घर
के भीतर जो हुआ,
वजीर
का लड़का उसकी कल्प
सकता था।
बुढ़िया जादूगरनी थ
उसने देख
लिया कि राजकुमार
की उंगली में एक
ऐसी अंगूठी है, जिस
पर जादू का प्रभाव
नहीं हो सकता।
इसलिए उसने जैसे
ही राजकुमार
का हाथ पकड़ा,
अंगूठी उतार ली। अब
राजकुमार उसके बस में
था। उसने घर के
भीतर जाकर
राजकुमार
को मक्खी बना दिया
मक्खी सामने
की दीवार पर जाकर
बैठ गई। बुढ़िया ने
जादू के जोर पर
अपना यह रूप
बना लिया था। असल
में वह अपने असली रूप
में आ गई और
राजकुमार
को भी मक्खी से उसके
असली रूप मे ले आई।
हंसते हुए बोली,
“बहुत दिनों में तुम
जैसा आदमी मिला है।
राजकुमार हैरान रह
गया। कहां गई वह
बुढ़िया, जो उसे
वहां लाई थी?
उसकी जगह यह
सुन्दरी कहां से आ
गई? विस्मय से
राजकुमारी कभी उस
युवती को देखता,
कभी घर पर इधर-
उधर निगाह डालता,
पर उसकी समझ में कुछ
न आता। राजकुमार
की यह हालत देखकर
युवती जोर से हंस
पड़ी। बोली,
“घबराते क्यों हो? मैं
तुम्हारा कुछ
भी बिगाड़
नहीं करूंगी। आओ, मेरे
साथ चौपड़ खेलो।”
राजकुमार ने
दु:खी होकर कहा, “मैं
यहां रुक
नहीं सकता।”
“क्यों?” युवती ने
पूछा।
राजकुमार ने उसे
सारी बात बता दी।
बोला, “मुझे जल्दी-
से-जल्दी सिंहल
द्वीप पहुंचकर
रानी पद्मिनी से
मिलना है।” “ठीक
है।” युवती ने
उसकी ओर मुस्करा कर
देखा, “पर तुम
वहां पहुंचोगे कैसे?”
राजकुमार
रानी पद्मिनी के
चारों ओर
की नाकेबंदी की बात
सुन चुका था, फिर
भी उसने अनजान बन
कहा, “क्यों?”
युवती बोली, “पहले
तो तुम सिंहल द्वीप
पहुंच ही नहीं पाओगे।
अगर किसी तरह पहुंच
भी गये
तो रानी पद्मिनी से
मिल नहीं सकते।”
राजकुमार ने कहा,
“मुझे हर हालत में
अपनी इच्छा पूरी कर
यदि मेरा प्रण
पूरा नहीं हुआ तो मैं
जान दे दूंगा।”
युवती करुणा से भर
कर बोली, “नहीं,
उसकी नौबत
नहीं आयेगी। मैं तुम्हें
एक काला और एक
सफेद बाल देती हूं।
काले बाल को जलाओगे
तो पिशाचों की फौज
आ जायेगी। सफेद बाल
को जलाओगे
तो देवों की फौज आ
जायेगी। वे
तुम्हारी हर तरह से
मदद करेंगे।
जो कहोगे,
वही करेंगे।”
राजकुमार के खोये
प्राण आये। उसने उस
युवती का आभार
मानना चाहा, पर
उसके मुंह से शब्द
नहीं निकले। चुप
रहा। युवती बोली,
“मेरी एक शर्त तुम्हें
माननी होगी।”
“वह क्या?”
राजकुमार ने
उत्सुकता से पूछा।
युवती ने गंभीर होकर
पूछा, “तुम
पद्मिनी को लेकर जब
लौटोगे तो मुझे
भी साथ ले जाओगे!”
“तुम्हारी यह शर्त
मुझे मंजूर है।”
राजकुमार ने बड़े सहज
भाव से कहा।
युवती बोली, “मैं
जानती हूं कि तुम्हारे
भीतर कितनी आग
धधक रही है। मैं तुम्हें
रोकूंगी।’’….. उसे
बीच में ही रोककर
राजकुमार ने कहा,
“मेरा मित्र बाहर
बहुत बेचैन
हो रहा होगा। अब
तुम मुझे जाने दो।”
“मुझे भी साथ ले
चलो।”
बड़ी शरारत-
भरी आवाज में
युवती बोली, “मैं
तुम्हें इस घर में अधिक
दिन नहीं रक्खूंगी।
बस, आज की रात,
सिर्फ आज की रात,
तुम मेरे साथ चौपड़
खेल लो।”
राजकुमार
राजी हो गया।
रात-भर उसके साथ
चौपड़ खेलता रहा।
उसने युवती को बार-
बार हराया, पर
हराकर
युवती व्यथित
नहीं हुई, उसे
पता चला कि राजकुम
की बुद्धि कितनी प्र
है। सवेरा होने से
पहले युवती ने उसे एक
डिब्बी में दो बाल
दिये और
उसकी अंगूठी लौटा द
बोली, “जाओ।
रास्ता कठिन जरूर
है, पर तुम्हें
सफलता मिलेगी।”
उसने बड़े प्यार से
राजकुमार
को विदा किया और
उसके जाने के लिए
दरवाजा खोल
दिया। उस एक रात
में वजीर के लड़के
की जो हालत हो गई
थी, उसे
वही जानता था। उसे
लग रहा था कि अब
राजकुमार अंदर
ही फंसा रहेगा,
बाहर नहीं आयेगा।
पर
सहसा दरवाजा खुला
राजकुमार बाहर
आता दीख
पड़ा तो वह
अपनी आंखों पर
विश्वास नहीं कर
सका। उसका जी भर
गया। वह दौड़कर
राजकुमार से लिपट
गया और
बच्चों की तरह फूट-
फूट कर रोने लगा।
राजकुमार ने उसे
ढांढस बंधाया।
बोला, “मित्र,
घबराने की जरूरत
नहीं है। जो होता है,
अच्छा ही होता है।
इसके बाद उसने
जादूगरनी की पूरी क
कह सुनाई। बोला,
“मैं तो मानता हूं
कि आदमी का इरादा
कामयाबी मिलकर
ही रहती है। उसके
रास्ते में बाधाएं
आती हैं, पर वे दूर
हो जाती हैं।” वजीर
के लड़के ने कहा, “आप
सही कहते हो,
साधना के
बिना सिद्धि नहीं म
अब उन्होंने फिर आगे
का रास्ता पकड़ा।
उस नगरी से निकल
कर अब वे खुले मैदान
में थे। इधर-उधर
खेतों में फसल उग
रही थी। लोग अपने-
अपने काम में लगे थे। वे
लोग चलते गये, चलते
गये। रास्ते में खेत-
खलिहानों के
अलावा कहीं-
कहीं हरे-भरे बाग-
बगीचे मिलते,
कहीं नदी-नाले, पर
उन सबको पार करते
वे निर्विध्न बढ़ते
ही गये।
रात होने से पहले
उन्हें एक आश्रम
मिला। उस आश्रम के
बाहर एक साधु बैठे
थे। सिर पर
बड़ी जटाएं,
लम्बी दाढ़ी,
घनी मूछें, भरा-
पूरा चेहरा।
राजकुमार का मन हुआ
कि रात
को वहीं ठहर जायें।
उसने अपने साथी से
सलाह की तो वह
भी राजी हो गया।
राजकुमार ने तब साधु
के पास जाकर कहा,
“हम मुसाफिर हैं।
बहुत दूर से आ रहे हैं।
यदि आपकी अनुमति ह
को यहां ठहर जायें।
सवेरे चले जायेंगे।”
साधु बोले, “यह
तो आश्रम है। हर
कोई यहां रुक सकता।
तुम आराम से
ठहरो और जबतक मन
करे, हमारे साथ
रहो!” राजकुमार
को यह सुनकर
बड़ी खुशी हुई।
उन्होंने
घोड़ों को वहीं बांध
दिया और आश्रम के
एक कमरे में बिस्तर
लगाया। खा-पीकर
जब बैठे तो साधु
महाराज भी वहीं आ
गये। बातें होने लगीं।
साधु बाबा बहुत पहुंचे
हुए व्यक्ति थे। जब
वह बोलते थे,
ऐसा प्रतीत
होता था,
मानो उनके मुख से फूल
झड़ रहे हों। उन्होंने
पूछा, “तुम लोग
कहां से आ रहे हो?
कहां जा रहे हो?
तुम्हारी यात्रा का
क्या है?” राजकुमार
ने
सारी जानकारी वि
से दे दी और अंत में
कहा, “बाबाजी,
आर्शीवाद दीजिये
कि हमें अपने उद्देश्य
में सफलता मिले।”
बाबा विह्वल
हो आये। बोले,
“मेरा आशीर्वाद
तो हमेशा सबके साथ
रहता है। तुम्हारे
साथ भी है। पर वत्स,
तुम्हारा काम
तो आकाश से तारे
तोड़ लाने के समान
है।” इतना कहकर
बाबा चुप हो गये।
फिर बोले, “पर मेरे
यहां से तुम
खाली हाथ
नहीं जाओगे। मैं तुम्हें
एक ऐसी भभूत दूंगा,
जिसे खाकर तुम
सबको देख सकोगे, पर
तुम्हें कोई नहीं देख
सकेगा।”
बाबा उठकर गये।
लौटे तो उनके हाथ में
भभूत थी। उसे
राजकुमार को सौंपते
हुए बोले, “इसे
संभालकर रखना और
किसी को मालूम मत
होने देना।”
राजकुमार ने
बाबा का आशीर्वाद
मानते हुए भभूत ले
ली। अब तो धीरे-
धीरे
पद्मिनी की नाकेबंद
का रास्ता साफ
होता जा रहा था।
बाबा कह रहे थे,
“जीवन में
अपना उद्देश्य
ऊंचा रक्खो और उसे
प्राप्त करने के लिए
पूरे साहस से काम
लो। यह जीवन प्रभु
ने हमें बड़े-बड़े काम
करने के लिए
ही दिया है। जिनके
सामने कोई ऊंचा ध्येय
नहीं होता, वे
छोटी-
छोटी चीजों में फंसे
रहकर अपनी जीवन-
यात्रा पूरी कर देते
हैं।” बाबा ने भभूत
की डिब्बी उसे दी।
राजकुमार और वजीर
का बेटा उनकी बातें
बड़े ध्यान से सुन रहे
थे। बाबा के मुंह से
निकले एक-एक शब्द के
पीछे उनका विश्वास
था। उन्होंने कहा,
“तुम लोग तीन-चार
दिन यहां विश्राम
करके आगे बढ़ो। कौन
जाने, आगे
की यात्रा अबतक
की यात्रा से
भी कठिन हो। थके
होगे तो लड़ोगे कैसे?
ताजे होगे तो पहाड़
की चोटी पर सहज
ही पहुंच जाओगे।”
राजकुमार
को जल्दी थी। उसने
ठहरने में
आनाकानी की, लेकिन
वजीर के बेटे ने
बाबा की बात मान
ली। समझाने पर
राजकुमार भी सहमत
हो गया। वे लोग
आश्रम में चार दिन
रहे। इस बीच में
बाबा छाया की भांत
साथ रहे। उनके पास
अनुभवों का अनन्त
भण्डार था।
उनका लाभ वह उन
दोनों को देते रहे।
उन्होंने अंत में जोर
देकर कहा, “अपने
किये पर अभिमान मत
करना, साथ
ही अपने मार्ग पर
दृढ़तापूर्वक डटे
रहना।” उन चार
दिनों में बाबा से और
आश्रम के जीवन से
इतना मिला कि वे
कृतकृत्य हो गये। अपने
उद्देश्य की सफलता में
अब उन्हें कोई संदेह
नहीं रहा।