Saturday 3 December 2011

राजकन्या ने राजकुमार के पेट से सर्प निकाला(पंचतंत्र)

किसी नगर में देवशक्ति नाम
का एक राजा रहता था।
उसके पुत्र के पेट में एक सर्प
था। पेट में रहने वाले उस सर्प
के कारण दिन-प्रतिदिन वह
लड़का दुर्बल
होता जा रहा था। विविध
प्रकार के उपचार किए जाने
पर भी किसी प्रकार
उसका स्वास्थ्य सुधरने में आ
ही नहीं रहा था। इससे
राजकुमार अपने जीवन से
निराश हो अपने घर से विदेश
चला गया। वहां एक नगर में
वह भिक्षाटन
द्वारा अपनी आजीविका चलाने
लगा। रात्रि को वह
किसी देवालय में
सो जाया करता था।
जिस नगर में उस राजकुमार ने
शरण ली थी उसके
राजा का नाम बलि था।
उसकी दो कन्याएं
थीं जो युवती हो चुकी थीं।
सूर्योदय होने पर वे
दोनों कन्याएं अपने पिता के
पास जाकर उसके चरण-स्पर्श
किया करती थीं। एक दिन
की बात है कि प्रातःकाल
इस प्रकार जाने पर एक
कन्या ने चरण-स्पर्श करके
कहा, “महाराज! आपकी जय
हो। आपकी ही कृपा से मुझे
सम्पूर्ण सुख-भोगने
को मिला है।” दूसरी ने कहा,
“महाराज! मैं अपने कर्मफल
का उपभोग करती हूँ।”
दूसरी कन्या के वाक्य
को सुनकर
राजा को बड़ा क्रोध आया।
उसने अपने
मंत्री को बुलाया और बोला,
“इस कटुभाषिणी को यहां से ले
जाकर किसी परदेशी के साथ
इसका विवाह कर दो। जिससे
कि यह अपने कर्मफल
का उपयोग कर सकें।”
महाराज की आज्ञा पाकर
मंत्री ने अपने दूत भेजकर
पता लगवाया कि नगर में
किस प्रकार का कोई
व्यक्ति मिल सकता है
अथवा नहीं। सौभाग्य से
वही उदरस्थ सर्प
वाला राजकुमार उनको मिल
गया। उन्होंने उसके साथ
ही राजकुमारी का विवाह
कर दिया। राजकुमारी ने
प्रसन्न मन से
उसको अपना पति स्वीकार
किया और फिर उसको लेकर
किसी अन्य देश को चल दी।
सुदूर देश के एक नगर में पहुंचकर
वह एक सरोवर के किनारे
रुकी और अपने
पति की रक्षा के लिए सेवक
को नियुक्त कर स्वयं अपने
परिचालकों के साथ घी, तेल,
नमक तथा चावल आदि लेने के
लिए बाजार चली गई। इस
प्रकार जब वह भोजन-
सामग्री आदि लेने के लिए
बाजार चली गई।
इस प्रकार जब वह भोजन-
सामग्री लेकर अपने स्थान पर
लौटी तो उसने
देखा कि राजकुमार
किसी सर्प के बिल पर सर
रखकर सोया हुआ है और उसके
मुख से अपने फण को निकालकर
एक सर्प हवा खा रहा है।
उधर जिस बिल पर उसके
पति का सिर था उससे भी एक
सर्प निकलकर उसी प्रकार
वायु का सेवन कर रहा है। उन
दोनों सर्पों ने जब एक-दूसरे
को देखे तो दोनों के नेत्र
क्रोध से लाल हो गए। बिल
वाले सर्प ने क्रोधातुर होकर
उदरस्थ सर्प से कहा, “अरे
दुष्ट! इस सर्वांग सुन्दर
राजकुमार को तुम इस प्रकार
कष्ट क्यों दे रहे हो?” उसके
उत्तर में दूसरा सर्प बोला,
“इस विवर में रखे
स्वर्णमुद्राओं से भरे
दोनों घड़ों को तुमने
क्यों दूषित कर रखा है?” इस
प्रकार परस्पर प्रश्न करके वे
एक-दूसरे के रहस्य खोलने लगे।
थोड़ी देर बाद विवर सर्प ने
कहा, “क्या तुम्हारी यह
औषधि कोई
नहीं जानता कि पुरानी कांजी और
काली सरसों को पीसकर गर्म
जल के साथ पीने से तुम मर
सकते हो।” मुख में निकले सर्प
ने भी उसी प्रकार कहा,
“तुम्हारी भी इस
औषधि को क्या कोई
नहीं जानता कि गर्म जल
अथवा तेल को विवर में डालने
से तुम मर सकते हो?”
वह राजकन्या वृक्ष की ओट में
छिपी उनके वार्तालाप
को सुन रही थी। उसने फिर
विलम्ब नहीं किया। उसने
विवर में डालने के लिए जल
को खूब गर्म करके उसमें
डाला और कांजी और
काली सरसों का पेय बनाकर
उसने अपने
पति को पिला दिया। इस
प्रकार उसने
दोनों सर्पों को उनके बताए
उपाय से मार डाला।
इस प्रकार उसने अपने पति के
नीरोग कर दिया और फिर
बिल में रखे सोने से भरे
घड़ों को भी निकलवा लिया।
अपने पति और सेवकों को लेकर
उस धन के साथ वह अपने
ही नगर लौट आई। उसे इस
अवस्था में देखकर उसके माता-
पिता ने उसका आदर-सत्कार
किया और उसके दिन आनन्द से
बीतने लगे। अपने पूर्वसंचित
कर्मों का फल प्राप्त कर वह
सुखी हो गई।

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